संवेद के जनवरी २०१४ के रंगमंच संबंधी अंक में मीराकांत के नेपथ्य राग पर प्रकाशित लेख
नेपथ्य राग के बहाने
कुछ अनुत्तरित प्रश्नों पर विचार ........
हिन्दी साहित्य के पुनर्लेखन के इस दौर में जहाँ एक तरफ
इतिहास की मृत्यु के दावे भी हैं वहीं नए सिरे से अपने इतिहास को खंगालने की
छटपटाहट भी.इतिहास की भी अपनी एक तय शुदा भूमिका होती है.इतिहास भी कभी-कभी अपनी
तीखी तलवार से न जाने कितने रचनाकारों के साथ अपनी तयशुदा भूमिका के कारण अन्याय
कर बैठता है...पुनर्लेखन के इस दौर में इतिहास लिखना कितना भी अकेले होना हो अथवा
लेखन की यातना से गुजरना पड़े परन्तु उन रचनाकारों,आलोचकों तथा मुद्दों को नए सिरे
से खंगाल कर रेखांकित करना जरूरी है जिससे स्मृतिहीनता के इस दौर में कुछ
स्मृतियों के दरवाजे को खटखटाया जा सके.
आज का मेरा यह प्रपत्र एक रचना पर ध्यान केंद्रित करते
हुए कुछ अनुत्तरित प्रश्नों को साझे करने का एक प्रयास कर रहा है...समय बदलाव का
है..विमर्शों के इस दौर में स्त्री और दलित विमर्श के समानांतर यह प्रपत्र
सत्ताहीन व्यक्तियों को केन्द्र में लाने का प्रस्ताव रखता है..यहाँ सत्ता बनाए
रखने के लिए एक स्त्री के वैदुष्य का नकार है..पर यह समस्या शाश्वत है...जहाँ
वैदुष्य को अपने युग में मान्यता न मिल पाने की अनेकों घटनाएं इतिहास में दफन देखी
जा सकती हैं..
"The world of
women, which generally lacks opportunity of statement in the outward arena is
full of dreams, memories and a rich inner life. Thus most of their work is full
of images, something like visual poetry, a statement of the inner voice, images
which appear unconnected but have a connection in the context of the overall
experience they are exploring. In addition, women down the ages have been
required to live at several levels simultaneously and they negotiate constantly
between these demands to adjust and accommodate. They unlike men, do not enjoy
the luxury of being able to work towards a single goal or ambition with a
single focus. The rational and sequential therefore has less space in their
lives…….."(Muffled Voices,Page165)
स्त्रियों के कार्य और उनके लक्ष्यों की चर्चा करता
उपर्युक्त वाक्य उनकी दोहरी-तिहरी अथवा अनेकानेक भूमिकाओं की ओर संकेत करता
है...जहाँ यह भूमिकाएं रंगमंच के हाशिए से शुरू होकर नेपथ्य में विराम पाती है
अथवा केन्द्र से भी उनका कोई संबंध है? मीराकांत के मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित नाटक 'नेपथ्य
राग' के माध्यम से चलिए चलें इस यात्रा पर...
५ मार्च २०१३ का दिन, इन्द्रप्रस्थ कालेज का आडिटोरियम और उसमें
बीचोबीच खड़ी माया कृष्णा राव ...स्त्री की सशक्त कहानी रचते हुए...एकल प्रस्तुति
के माध्यम से..
walk walk walk
I'll walk with you
Don't walk with him
I'll walk with you
Don't talk to him
I'll talk with you
सारे सभागार में सन्नाटा. गिरती उठती रोशनियाँ ,तालियों
की गूँज और मुझे एक क्षण को लगा कि कहीं पीछे खड़ी खना मुस्करा रही है...बदलते समय
की एक पुकार पर..जहाँ यदि कोई साथ नहीं होगा तो भी खुद को साथ ही लेकर चलना होगा.
उससे कुछ समय पूर्व –रंगमंच और स्त्री विषय पर कार्य
करते हुए अनेक रंगकर्मियों और नाटककारों से मिलना हुआ..डॉ.मीराकांत से हुई
चर्चा-परिचर्चा में कुछ दूसरे मुद्दों के साथ स्त्री और नाटक के भीतर स्त्री विषय
पर भी चर्चा हुई.उनकी दृष्टि की स्पष्टता ने प्रभावित किया ..और सोचने के लिए
बाध्य भी....
नाटक असल में अपनी
अनुगूंजो से इतिहास रचते हैं..नाटक की एक व्याख्या नहीं होती .समय और देशकाल के अनुरूप अपनी
अभिव्यंजनाओं को सार्थक करता नाटक असल में हाशिए के समाज के स्वर को उठाने में ही
अपनी सार्थकता का निर्वाह करता है. विद्वता के बने बनाए सीमित दायरे को तोड़ते हुए –विद्वता की सामाजिकता
को इतिहास से वर्तमान तक स्थापित करती मीराकांत अपने नाटकों के माध्यम से एक नई
दस्तक देती हैं...
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मीराकांत स्त्री को देह मानने के विरोध में कलम उठाती हैं और विद्वता
बनाम अस्तित्व के नकार का प्रश्न सामने रखती हैं.नेपथ्य राग,कंधे पर बैठा
था शाप,मेघ प्रश्न,हुमा को उड़ जाने दो, भुवनेश्वर दर भुवनेश्वर सभी नाटकों में
उन्होंने हाशिए पर कर दी गई विद्वता को केन्द्र में लाने की जद्दोजहद
की है...प्रश्न भले ही कभी स्त्री के माध्यम से आया हो या पुरुष होने
से..महत्वपूर्ण यह नहीं हैं..महत्व इस बात का है कि नकार देने और भुला देने वाले
इस समाज में सच आँख में उंगली डालकर दिखाने का साहस उन्होंने किया..जिसके कारण
उनके नाटक आज की रचनाधर्मिता के केन्द्र में रखे जाने जरूरी हो गए हैं.
नेपथ्य की यह कथा यूँ ही दबे पाँव मीराकांत के नाटकों के माध्यम से दस्तक
देने का उपक्रम करने लगी हो, ऐसा नहीं .इसका अपना पूरा एक इतिहास है जिस इतिहास का
साक्षी पंचम वेद कहा जाने वाला नाट्यशास्त्र
है. सहभागिता का प्रश्न कभी न कभी प्राचीन युग में भी इतना महत्वपूर्ण जरूर हो उठा
होगा कि उसके दबाव को महसूस करके नाटककारों ने भले ही इस प्रश्न को बहुत विस्तार न
दिया हो पर उस पर चर्चा तो अवश्य की.
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gSaA** भाषा की यह कुलीनता नायिका को कभी केन्द्रीय चरित्र के
रूप में संस्कृत नाटकों में स्थापित करती दिखाई नहीं देती. माँ, विरहिणी नायिका
अथवा अलकापुरी की सम्भोग को आतुर कन्याएं तो दीखती हैं पर केन्द्र बिंदु के रूप
में संघर्ष रत नायिकाएँ दिखाई नहीं देती. शूद्रक के मृच्छकटिकम की नायिका यद्यपि अपने निर्णय स्वयं लेती है परन्तु
फिर भी स्वतंत्र व्यक्तित्व का निदर्शन यहाँ भी दिखाई नहीं देता.धूता का एक संवाद
अवश्य पहली बार स्त्री को आभूषण प्रियता से आगे लाकर एक नया रूप प्रदान करता है---आर्यपुत्रेण
युष्माकं प्रसादीकृता,न युक्तं ममैतां ग्रहीतुम.
हिंदी
नाटकों की आरम्भिक पृष्ठभूमि स्त्री की
भावनात्मक और आर्थिक मुक्ति को केन्द्र में नहीं रखती.ब्रिटिश शासन से मुक्ति शायद
इतना बड़ा प्रश्न था कि अन्य किसी भी प्रकार की मुक्ति इसके हाशिए में भी शामिल न
हो सकी थी. लिंग विशेष की मुक्ति साम्राज्यवाद से प्रच्छन्न मुक्ति तो हो सकती है
पर वास्तविक मुक्ति के प्रश्नों को व्यापक स्तर पर देखना आवश्यक है..इस सत्य को
जानने की प्रक्रिया यूं तो भारतेंदु से शुरू मानी जा सकती है पर इस पर सदय होकर
विचार या तो आगा हश्र कश्मीरी के सीता वनवास नाटक के धोबी की पत्नी के मुख से
निकले संवाद में मिलता है..अथवा मोहन राकेश की अम्बिका में...लंबी जद्दोजहद के बाद
नाटककारों ने अपने ही समाज के दायरो से निकलकर अब स्त्री की प्राथमिकताओं पर विचार
करना शुरू किया है...यूं कहें कि दर्द आएगा जरूर, दबे पाँव ही सही.
इस
क्रम में नेपथ्य राग आज के समाज और प्राचीन समाज की कथा को जोड़ते हुए स्त्री की
आकांक्षाओं एक विस्तार की कहानी कहता है. नेपथ्य राग मालव गण नायक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय चौथी-पांचवीं शताब्दी की
उज्जयिनी की ग्राम बाला खना की यह कहानी भारत के स्वर्णिम इतिहास में स्त्री
के वैदुष्य के नकार की कहानी है. खना एक नाम भर है पर इस नाम के बहाने
लिखा जाने वाला नाटक हर युग के भीतर मौजूद है—अपने समस्त रंग संकेतों के साथ.
प्रस्तुत नाटक मिथकीय वातावरण में लिपटे हुए यथार्थ को
समकालीन यथार्थ में गूंथकर प्रस्तुत करता है.---ऑफिस की बॉस एक स्त्री जिसका कुछ
भी नाम हो सकता है---यहाँ प्रतीकात्मक रूप से नाम मेधा चुन लिया गया है—मेधा नाम
भी विद्वता का ही सूचक है, इसे भी प्रतीकात्मक माना जा सकता है.अपने समाज की
सत्तात्मक शक्तियों का सामना करती हुई जीने-खिलने-विकसित होने का दुस्साहस करती
है. एक ऐसा दुस्साहस जो तीसरी दुनिया की औपनिवेशिक मानसिकता का सामना करती हर
वो स्त्री कर रही है जो तालीबानी फरमानों के विरुद्ध पढ़ने जाती है तो कभी खुली
हवा में सांस लेने का साहस जुटाती है---शिक्षा देने वाली हर पुस्तक समानता में
विश्वास करना सिखाती है. संविधान का पहला अनुच्छेद हमें जिम्मेदार नागरिक के
रूप में परिभाषित करता है....पर वास्तविकता इससे भिन्न है....मेधा एक
सुशिक्षित युवा स्त्री है. पुरुष सहकर्मियों द्वारा तिरस्कृत और परम्परा से
प्राप्त अस्वीकार की मानसिकता से ग्रस्त ......................
'लेडी ऑफिसर...यही तो प्राब्लम
है(खो सी जाती है)परन्तु बर्दाश्त कहाँ कर पाते हैं मुझे वे लोग..मेरे ज्यादातर
फैसलों का विरोध करते हैं..कमियाँ ढूँढते हैं मुझमें ..दे फील चैलेंज्ड !"(पेज-६२)
मेधा यह समझने में असमर्थ है कि समय भले ही बदल गया
हो..टाइम की इक्वेशन बदल रही हो पर आज भी विद्वता का संबंध लिंग से ही क्योंकर
जोड़ा जाता है?
असल में यह मुद्दा मात्र स्त्री विमर्श या सत्तात्मक
विमर्श भर ही नहीं है बल्कि इसका सीधा संबंध वर्गगत, लिंगगत खांचों के साथ-साथ
मानसिकता से भी है.इस नाटक के भीतर और बाहर स्त्रियाँ ही हैं –नायिका के रूप
में, इतिहास से गुजरकर आज के समय में जीती नायिका के रूप में और अपने समय में
नायिका रह चुकी स्त्रियों के सामने सबसे बड़ा प्रश्न इसी अस्मिता की चुनौती का
है...मीराकांत तीन पीढियों के माध्यम से एक प्रश्न का सामना कर रही हैं—मेधा को
लगता है कि यह समस्या आज के समय की है, उसकी समस्या को शायद उसकी माँ समझने में
असमर्थ होंगी..पर माँ ही नहीं दादी भी—शांत दादी जिसे किसी मुद्दे पर बोलते हुए
नाटक में कहीं नहीं सुना गया—वह दादी भी 'बराह' की कहानी जानती है—एक ही कथा के
अनेक वर्जन मौजूद हैं—एक वर्जन यह भी है कि "यही कि खना की जबान तो खुद बराह
ने ही काटी थी'(पेज-६४)यह बात दादी की दादी ने बताई थी..हर युग की स्त्री इस कथा
को अपने अंदाज में बांचती आई है..और हर युग की स्त्री अपने समय की त्रासदी को जीवन
का एक हिस्सा मानकर स्वीकार करती आई है... खना ने भी इस त्रासदी को स्वीकार कर ही
लिया----
खना: (करुणामयी मुस्कान
के साथ स्वगत)स्त्री सभासद.....पिताश्री,आप तो व्यर्थ ही चिंतित हैं.श्रावण क्या
यह तो आषाढ़ से भी पहले के मेघ हैं.बरसेंगे नहीं. आषाढ़ अभी नहीं आया ...नहीं
आया...आषाढ़ आने में कई संवत्सर बीत जाएँगे...कई युग...यह नेपथ्य है..इसे मंच तक
पहुँचने में समय लगेगा...कल्पांत...कई युग( पेज—६१-६२)
खना के पास शायद विकल्पहीनता की स्थिति थी पर आज की मेधा
के सामने इस स्थिति को सुलझाना उतना मुश्किल नहीं है.
सत्ता का अहंकार प्रत्येक समाज के लिए एक चुनौती है—जहाँ आज भी
स्त्रियों का संघर्ष हाशिए से केन्द्र में आने का चल ही रहा है—एक ऐसे नेपथ्य राग
के रूप में जो कभी सुना ही नहीं जाता..
भारत में किए जा रहे राष्ट्रीय सर्वे के आंकड़े लगातार
बताते है कि --One most
telling statistical data which sums up the total scenario is contained in the
continuously falling sex ratio of females. Whereas in most developed societies,
women outnumber men because of
well known biological
forces, Indian society has always had a scarcity of women. W orse still, the
ratio has been getting more and more skewed. The 2001 Census has indicated that there are 933 females for every 1000 males. At
the beginning of the century there were 972 females
for every 1000 males.These diminishing ratios and the missing women
have naturally caused immense concern. Where have they gone? What has caused
such drastic reduction in the number of females? W ell, the missing numbers
have been traced to the increasing cases of female foeticide and infanticide,
at least in certain States. Alas, even those females who survive these early
threats at birth or in infancy, continue to be neglected and abused, at home
and outside, throughout their lives whether as daughters or as wives or as
widows. Various statistics relating to education and health document the same
story. Figures
of crimes against
women as revealed by the National Crimes Record Bureau bring out the grimness of
the situation affecting the “better half” (which, alas, is less than half) of
our population.
जिह्वाविहीन स्त्री समाज में युगों से स्वीकार्य
है---नेपथ्य राग भी एक जिह्वा काट दी गई स्त्री का दर्द भरा राग है---जिह्वा
प्रत्यक्ष रूप से काट ही दी जाए –जरूरी नहीं, इसीलिए नाटककार भी इस कहानी के अनेक
वर्जन प्रस्तुत कर देती हैं पर आज भी यह जिह्वा अनेक तरीकों से काटी, बींधी और
सिली जा रही है..मीराकांत इस ओर संकेत भर
करती हैं---परिवर्तन के लिए तो नेपथ्य से ही नहीं मंच से भी बाहर आकर प्रयास करना
होगा.
मीराकांत
आज की एक महत्वपूर्ण नाटककार हैं जिन्होंने स्त्री भाषा को सशक्त रूप प्रदान करते
हुए ‘नेपथ्यराग’ की खना को ऐतिहासिक युग से आधुनिक युग की यात्रा कराते हुए आधुनिक
स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया है. खना की पीड़ा पुरातन युग की पीड़ा ही नहीं रह
जाती बल्कि आधुनिक युग की त्रासदी को भी साकार कर देती है ----
खना का ज्ञान और कीर्ति का प्रकाश
उसे विक्रमादित्य के दरबार तक ले जाता है परंतु पुरूष प्रधान समाज इसे स्वीकार
करने के लिए तैयार नहीं. खना के जिस बन्धु काका ने जीवन भर उसे आगे बढ़ाया आज उनकी
आँखों में ही खना को मौन निराशा दिखाई देती है----
“सुबन्धु
भट्ट -----आज तुमसे कहता हूं कि यह सब इतना सहज नहीं है .”
खना : मैं स्त्री हूं इसीलिए ?
(सुबन्धु भट्ट खना की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से
देखते हैं परंतु उत्तर नहीं देते)
खना : आपने मुझे जीवन में सदैव आशावादी बने रहने
की शिक्षा दी है ------आज आपकी आँखों में यह मौन निराशा क्यों ? ( कुछ क्षण ठहरकर,
क्या हमने कभी सोचा था कि आचार्य मिहिर मुझे शिष्या के रूप में स्वीकार करेंगे ?
या मैं उनके कुल की वधू बनूंगी ?
सुबन्धु : (उदास स्वर में ) वह भिन्न प्रसंग है .
खना : बन्धु काका, बचपन से आपसे
एक कथा सुनती आई हूं ---अरून्धती की कथा. क्या उस अरून्धती को आकाश में सप्तर्षि
मण्डल के पास दिव्य स्थान प्राप्त नहीं हुआ? स्त्री हुई तो क्या ?
सुबन्धु भट्ट ( नि:श्वास छोड़कर ) हाँ हुआ----- परंतु अपने पतिव्रता धर्म की
विशेषता के कारण -----अपने वैदुष्य के कारण नहीं-------वैदुष्य के कारण नहीं .
(संभलकर ) आशाएं बनीं रहे -----परंतु----यह इतना
सहज नहीं.
(नेपथ्यराग ,पृ. 22 )
कितनी
त्रासद स्थिति है और कितना त्रासद सत्य ! वास्तव में स्त्री को समाज उसके
पातिव्रत्य धर्म के कारण ही सम्मान देता है. उसके वैदुष्य को समाज कभी स्वीकार
नहीं कर सकता. स्वयं खना के गुरू वराह मिहिर भी सभा के मध्य जिह्वाविहीन स्त्री सभासद के होने की स्थिति को स्वीकार कर
लेते हैं.
नेपथ्य राग खना की चुप्पी के माध्यम से कई प्रश्नों को जन्म देता
है---पहला कि खना की यह नियति उसके स्त्रीत्व का नकार है या उसके वैदुष्य
का! दूसरा कि सहिष्णु कहा जाने
वाला भारतीय समाज स्त्रीत्व और वैदुष्य के मध्य
संबंध जोड़कर देखने में इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है! तीसरा कि
क्या काल की निरंतरता का दावा करने वाले इस समाज में पीडाएं भी निरंतर गतिमान
रहेंगी? क्या काल को प्रवाह में देखने वाले हम कुछ अनुचित मान्यताओं को भी
परम्परा के नाम पर आगे ले जाने का दंभ भरते रहेंगे?क्या खना के माध्यम से
उभरे प्रश्न ही हमारी नियति बनकर रहेंगे? या
हम अपने टाइम से इक्वेट करके इन प्रश्नों पर सदय होकर विचार कर सकेंगे? असल
में इस नाटक को कई परतों पर पढ़ा,खेला और वाचित किया जा सकता है...नाटक की सार्थकता
भी इसी में हैं कि वह larger then life भले ही न हो पर जीवन सत्य से जूझने को
बाध्य अवश्य करे. यह नाटक खना की चुप्पी –कटी हुई जिह्वा—कहानी के हर मोड़ पर उसके
वैदुष्य और प्रतिभा के नकार से आज की स्त्री की समस्या को दर्शाता है—प्रश्न यह भी
है कि आज शिक्षा और समानता के प्रचार के बावजूद क्या स्थितियाँ बदली हैं---माँ
अपनी पहली नियुक्ति की चर्चा करते हुए इस प्रश्न को हलके से छू भर देती है---
"यह विरासत में मिला है क्या करें वे.....मैं जब
पहली बार मजिस्ट्रेट बनकर गई थी तो मेरा चपरासी ....मेरे सब ओर्डिनेट मुझे सर कहकर
बुलाते थे.उनके लिए मैं मैडम नहीं सर थी( अभिनय सा करते हुए) सर!
मेधा इस प्रश्न की तह को हौले से हाथ लगाते हुए मानो
किसी भीतरी जंगल में उतरते हुए अपने नित देखे स्वप्न को आवाज देती है---बेचारों
ने कहाँ सोचा होगा कि औरत की मातहती करनी होगी.(पेज६३)
यह पितृ सत्ता का एक ऐसा क्रूरतम चेहरा है जहाँ पहुंचकर
वर्गभेद की खाई पट जाती है---लिंग ही प्रधान रह जाता है...वीर भोग्या वसुंधरा
का अहंकार प्रमुख बन जाता है---स्त्री भाषा के मुहावरे में रसपगी भाषा और
भावों के सहारे मीराकांत दो युगों की पीड़ा के तंतुओं को राई रेशे के साथ समेत कर
दोनों को एक सूत्र में पिरों देती हैं.इसीलिए वह स्वयं भी यही कहती हैं-
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इतिहास और मिथक में
अंतर न करने वाला यह देश निरंतरता में विश्वास रखता है---यह निरंतरता सम्पूर्ण नाटक में विद्यमान है—अतीव के साथ
चलता वर्तमान और उससे नित प्रेरित होता भी—जयदेव तनेजा लिखते है---"हम
भारतीय चूँकि काल को सतत प्रवाहमान मानते हैं इसलिए व्यतीत और भविष्य के लिए एक ही
शब्द (कल) का प्रयोग करते हैं.वर्तमान के दोनों सिरे इस काल के दोनों सिरों से
अविभाज्य रूप से जुड़े हैं.हम कालातीत अनुभव में न्विश्वास करते हैं.यही कारण है कि
नेपथ्य राग का कार्यव्यापार अतीत और वर्तमान में एक साथ चलता है.दोनों कालों में
चरित्रों की निरंतर उपस्थिति और सहज आवाजाही को नाटककार ने रचनात्मक सूझ-बूझ से एक
ही सूत्र में पिरोया है...पांचवे दृश्य में खना के विवाह के अवसर पर उसकी अपनी माँ
की जगह मेधा की माँ का पार्श्व से केन्द्र में जाकर चुनरी पहनाना भी नाटकीय और
अर्थपूर्ण हैं—"(आधुनिक नाट्य विमर्श: पेज-२७६)
यह नाटकीयता सम्पूर्ण नाटक को आज के युग से जोड़ने और
सम्वेदना के सतत प्रवाह को दर्शाने में महती भूमिका निभाती है..
दूसरे दृश्य से खना के अद्भुत ज्ञान और उसकी ज्ञान
पिपासा को सरलता से अनुभव किया जा सकता है---भूखे की क्षुधा के समान अथाह ज्ञान
सागर के भीतर उतरने की चाह उसके रोम रोम में विद्यमान है---अरुंधती को देखते
हुए उसी के समान ज्ञान का एक तारा बनकर सभी के जीवन को प्रकाशित करने की चाह उसके
मन में विद्यमान है.इसीलिए वह वराह मिहिर के ललाट पर किसी के सौभाग्य चिह्न के
आशीर्वाद से कुछ अधिक चाहती है—'जीवन को अवनि से अम्बर तक आत्मसात करना' चाहती
है, स्थूल ज्ञान चक्षुओं को ज्ञान चक्षु बनाने की चाह देश और काल की कारा से मुक्त
दृष्टि (पेज-१५-१६)भय से मुक्ति से पूर्ण ज्ञान –"
ज्ञान की यह अद्भुत पिपासा देखकर वराहमिहिर ही नहीं
दर्शक भी मंत्रमुग्ध है...क्या कन्या जीवन का अर्थ मात्र सौभाग्य चिह्नों की
पूति से ही तृप्ति मात्र है.?यह प्रश्न पूरे नाटक में अनुगूंजित रहता
है...दर्शक इस प्रश्न पर नए सिरे से विचार करे और अपने जीवन में आने वाली
स्त्रियों के लिए भी अपनी जीवन दृष्टि बदल सके, तो नाटक में पसरी चुप्पी अर्थवान
हो उठती है.
प्रुथुयशस परम्परावादी लीक पर ज्योतिष में ही नही जीवन
में भी चलता है...इस नाटक की भाषा एक वास्तविक रंगभाषा का सृजन करती है जो
हर शब्द और वाक्य के जरिये अनेक व्यंजनाओं को जीवन्त करती चली जाती है.पृथुयशस
ज्ञान के संवेद कणों में भी सौंदर्य का स्वेद देख लेता है पर खना उस क्षण को महसूस
भी नहीं कर पाई थी.सुबंधु भट्ट से विवाह की चर्चा सुनकर खना अचरज में है---कि ज्ञान
मार्ग में भी लिंगीय भेद इतने प्रबल क्यों है?
महाराज चन्द्रगुप्त खना के ज्ञान से प्रभावित होकर उसे
अपनी राज्यसभा में सभासद बनाना चाहते हैं—सभासद बनने के प्रस्ताव और सभासद बनने की
कार्यवाही का कभी सम्पन्न न हो पाना ही दृश्य सात से तेरह तक पिरोया गया है.पर इन
दृश्यों के मध्य न जाने कितने ही कटु सत्यों का साक्षात्कार दर्शक करता है.सहज
गतिमान सरल परन्तु अभिव्यंजना से पूर्ण संवादों के माध्यम से नक्षत्रो की गणना ही
नहीं होती बल्कि धीर गंभीर व्यक्तित्वों के भीतरी खोखलेपन का भी साक्षात्कार
होता है..
सर्वप्रथम महादेवी के मन की असुरक्षा के दर्शन होते
हैं.महादेवी होते हुए भी वह एक स्त्री हैं जिनका और कोई वैशिष्ट्य नहीं,मात्र इसके
सिवा कि वह चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य की पत्नी हैं.यही उनका गर्व है और
यही उनकी सीमा भी- खना के प्रति एक तरफ उनके मन का संदेह और दूसरी ओर
ज्योतिषीय तैल की चर्चा उनके इसी संदेह को दर्शाते हैं..आहत महादेवी कहीं न कहीं
इस पीड़ा को भीतर ही भीतर पहले ही जीती रहीं है—न जाने कब से और किस-किस रूप में---
खना यहीं महादेवी से स्त्री पुरुष के प्रति समाज के
भिन्न दृष्टिकोण की चर्चा करती है—महादेवी का स्वगत और प्रकट वक्तव्य उनकी पीड़ा को
ही दर्शाता है----
महादेवी;(स्वगत) तुम्
एक स्त्री की बात कर रही हो! उनकी संख्या तो न जाने कितनी हो! राष्ट्र की महादेवी
हूँ तो क्या,सम्भावत: मैं भी....(प्रकट ) इतने गहरे प्रश्न मत छेड़ो ! ऐसे तो जीवन
दूभर हो जाएगा.(४७)
महादेवी जानती है कि महाराज के मन में भी दुविधा है---पता
नहीं सभासद बनकर भी खना की विद्वता की स्वीकृति होती अथवा उसका सौंदर्य ही उसके
ज्ञान की परख का केन्द्र बन जाता.?नाटककार एक हल्का सा संकेत करके महादेवी की
दुविधा को जीवंत कर देती है..प्रश्न यहाँ भी स्त्री के रूप बनाम विद्वता का
ही है—पर इससे अधिक महत्वपूर्ण है—उन विद्वान कहे जाने वाले सभासदों का व्यवहार –जो
अपने अपने क्षेत्रों में क्रान्ति का दावा करते हैं, जो एक नई क्रान्ति के
सूत्रधार हो सकते थे, वे सब विद्वता के नकार के साक्षी ही नहीं बनते बल्कि स्त्री
और दासों के प्रति अपनी असहिष्णु दृष्टि के स्थापक बनने में भी परहेज नहीं
करते.राजा भी –ज्ञान,विज्ञान,साहित्य और कला के मर्मज्ञ विद्वानों की इस सभा के
व्यवहार से अचम्भित है—नाटकीयता का यह पहलू—दर्शक समाज की बनी बनाई दृष्टि को
झकझोरने में भी समर्थ है.मालव गण नायक की निराशा समाज के विद्व जनों की भी निराशा
बन जाती है.
सबसे नाटकीय क्षण वह है—जहाँ वराह मिहिर तटस्थता को स्वीकार करते हुए उन
सभी सभासदों का साथ देते हैं—यहाँ दर्शक समाज और पाठक के भीतर एक प्रश्न निरंतर
कुलबुलाता है कि क्या यदि खना के स्थान पर वराहमिहिर का कोई और शिष्य अथवा पुत्र
ही इतना योग्य होता तो वे सभी सभासदों के समक्ष इतने ही तटस्थ रह पाते—भले ही वह
स्वयं कहते हैं---
(दुःख के साथ) स्त्री जातकों की ह्रदय से भूरि-भूरि
प्रशंसा लिखने वाला मैं –वृहद जातक ग्रन्थ का प्रणेता आचार्य वराह मिहिर आज जीवन
में स्त्री के प्रश्न को लेकर बहुत साधारण
हो गया. मैंने सर्वसम्मति की ओट में अपने व्यक्तिगत मत पर अवगुंठन डालने की चेष्टा
की..उसे छिपाया.(५९)
तटस्थता वास्तव में कोई
गुण नही-एक प्रकार से अनुचित को मौन स्वीकृति देना है.आगे की कथा
तो अपने अपने वर्जन में निहित हो सकती है..पर इस नाटक की सार्थकता यही है कि यह उन
वर्जनाओं से लेकर उन छिपे हुए प्रश्नों से हमारा साक्षात्कार कराता है जिनकी आड़
में हम सब बहुत से अनुचित कार्यों के सहभागी बनते चले जाते हैं....नारी को
श्रद्धा मानने की ओट में हम बुद्धि के तिरस्कार की जिस् परम्परा को ढोते चले जा
रहे हैं उस परम्परा ने स्त्री समाज को हाशिए पर धकेलने में बड़ी भूमिका निभाई
है..क्या आधी आबादी की पीड़ा से साक्षात्कार कराता यह नाटक यूं ही भुला दिया जाने
योग्य है?
मीराकांत का यह नाटक उस प्रस्तावित मान्यता का विरोध
करता है जहाँ स्त्रियों के जीवन की सार्थकता का संबंध मात्र गृहस्थ जीवन से
है..पति सेवा में मुक्ति और उसी सेवा से परलोक के सुधार को तय करती स्त्रियों से अलग ज्ञान की तलाश और उस
तलाश से सार्थक होने ही चाह इतनी बड़ी तो नहीं कि समाज उस चाह के स्वर का ही दमन कर
दे--- तो क्या मान लिया जाए कि" श्रावण
क्या अभी तो आषाढ़ भी नहीं हैं.. पूर्वाषाढ़ है..यह नेपथ्य
है...नेपथ्य...(६२)
जिह्वाविहीन स्त्री और जिह्वाविहीन कर दी जाती स्त्री की
पीड़ा को अभिव्यक्त करता यह नाटक शताब्दियों से चले आ रहे शोषण के विरोध में नई सोच
प्रस्तावित करता है..मेधा के रूप में...दादी की दादी से सुनी यह कहानी अब मेधा दादी बनकर अपनी पुत्री
को इस रूप में नहीं सुनाएगी,यह नाटककार की
ही नहीं दर्शक समाज की भी जिम्मेदारी है..जिसे यह नाटक अनेक प्रतीकों के
माध्यम से प्रस्तावित करता है..
इस नाटक की भाषा भी –दो युगों में यात्रा करती है
और इस दृष्टि से कठिन सरल की प्रस्तावित दुनिया से अलग् अपने युग धर्म की भाषा
बनकर उभरती है—युग को व्यंजित करती भाषा –दो युगों की बदलती संवेदना भूमि को भी
दर्शाने की वाहिका बनकर आती है.
इस नाटक की प्रतीकात्मकता और व्यंजना को एक अन्य
स्तर पर भी पहचाने जाने के जरूरत है..जहाँ नाटककार अत्यंत सूक्ष्मता से मेधा के
अतिरिक्त आधुनिक समय में भी माँ और दादी के नाम की चर्चा नहीं करती—क्या दर्शक
समाज के मन में यह प्रश्न उठा होगा कि मेधा की माँ और दादी का भी कोई नाम है या
विवाह के पश्चात उनकी आइडेन्टिटी बस माँ और दादी होने से ही जोड़ दी गई..?मेरे मन
में तो यह प्रश्न जन्मा है? चलिए कभी अपने भीतर बैठे और बाहर मिलते दर्शक समाज से
मिलकर भी इस पर चर्चा कर ली जाए..... क्या इतिहास इन प्रश्नों पर सदय होकर विचार
कर सकेगा? ....इति