Tuesday, 17 March 2015

    


यह आलेख सबलोग के जुलाई 2014 अंक में प्रकाशित हुआ था. आपसे साझा कर रही हूं...

    भाषा, अस्मिता बोध, उच्चता बोध और पहचान का संघर्ष :
              सन्दर्भ :भारत एवं स्विट्जरलैंड
भाषा का प्रश्न आजकल चारों ओर चर्चा का विषय बना हुआ है. संसदीय परिवर्तन से लेकर दलीयगत राजनीति और समाज के चयन में आने वाले परिवर्तनों के साथ भाषा का मुद्दा एक केन्द्रीय मुद्दा बनकर उभरा. भाषण के लिए भाषा का प्रयोग तथा सी-सेट के विवाद ने भाषा बनाम अस्मिता बोध, उच्चता बोध की बहस को जन्म दिया. हिन्दी बनाम अंग्रेजी का यह मुद्दा शायद यह उतना नहीं जितना वर्ग, अस्मिता बोध और उच्चता बोध से सम्बन्धित है.
कुछ समय पहले लौजैन विश्वविद्यालय में पढाने का अवसर मिला. रशियन एयरलाइंस से मास्को की यात्रा करते हुए स्विट्जरलैंड जाना तय हुआ. रशियन एयरलाइंस में होने वाली अधिकाँश उद्घोषणाओं में अंग्रेजी का प्रयोग न होने से समस्या तो हुई पर कहीं सुकून भी  मिला कि अंपनी भाषा को लेकर रशियन समाज इतना सजग है. स्विट्जरलैंड पहुंचकर फ्रेंच ने स्वागत किया, अंग्रेजी ने हाथ थामा और सहलाती, पुचकारती हुई लोगों के साथ जोड़ती गई. फ्रेंच का कखग न जानने के कारण परेशानी तो हुई पर अन्ग्रेजी ने संभाल लिया. भाषा के प्रति प्रेम देखकर न केवल अच्छा लगा बल्कि भाषा के जुड़ाव ने मुझे उनके साथ जुड़ने का सुअवसर दिया. स्विट्जरलैंड के अधिकाँश निवासी अंग्रेजी जानते हैं पर वे एयरपोर्ट से लेकर विश्वविद्यालय अथवा परिवहन और घर के भीतर वे अपनी भाषा फ्रेंच का ही प्रयोग करते हैं तथा आने वाले व्यक्तियों से भी उनकी भाषा के प्रयोग को जानने समझने की उम्मीद करते हैं. फ्रांस, इटली और स्पेन जाने पर भी समानांतर अनुभव हुए. यह अनुभव मेरी इस धारणा को दृढ करने में समर्थ ही हुए कि ग्लोबल कही जाने वाली भाषा से परहेज नहीं किया जा सकता पर अपनी प्राथमिकताओं का क्रम तय करते हुए!!
भारत में अपनी देशज भाषाओँ के प्रति उपेक्षा का जो वातावरण तैयार हो रहा है, वह चिंतनीय भी है और उसके कारणों की जाँच भी आवश्यक है. अपनी भाषाओँ को छोड़ते जाने की इच्छा और लोकल होने की अपेक्षा ग्लोबल होने की जिद हमें भाषिक स्तर पर भी नव-उपनिवेशी बना रही है...क्या इस तथ्य को छोड़कर आगे बढ़ा जा सकता है?
स्विट्जरलैंड की प्रमुख भाषाएँ चार है—फ्रेंच, जर्मन, इटालियन और रोमांच. अपने अपने क्षेत्र के वरीयता क्रम के अनुसार मूल रूप से स्विट्जरलैंड इन चार भाषाओँ का प्रयोग करता है.भाषाओं का आपसी संघर्ष वहाँ भी है पर उस पर चर्चा फिर कभी!! रोमांच का प्रयोग घाटी(वैली) में रहने वाले तीन लाख लोगों के द्वारा किया जता है.पानी की बोतल से लेकर समस्त उत्पादों पर इन सभी भाषाओँ पर विषय-विवरण मिलता है. फ्रेंच बहुल क्षेत्र में रहने के कारण मैंने कुछ शब्द सीखे और फिर अंग्रेजी का सहारा लिया. पर यहाँ मेरा उद्देश्य यह बताना है कि इस देश में यदि आपको परिचय पाना है अथवा परिचय का विस्तार करना है तो तो फ्रेंच में आरंभिक बातचीत के बाद ही आप ग्लोबल मानी जाने वाली भाषा का प्रयोग कर सकते हैं.इसके बाद भी आगे चलकर आपको यदि उस समाज में पैठ बनानी है या भीतर उतरना है तो उनकी स्थानीय भाषा सीखनी होगी. लौजैन विश्वविद्यालय की बैठकों में प्रयुक्त भाषा भी फ्रेंच ही है.बाहर से आने वाले प्रोफेसरों को भी यह भाषा सीखकर ही कार्य करना होता है क्योंकि बैठकों की मूल भाषा फ्रेंच अर्थात स्थानीय भाषा ही है. स्थानीय भाषा उनके लिए अस्मिता बोध और जातीय बोध की परिचायक ही नहीं उनके समाज बोध और जीवन बोध की परिचायक भी है. भारत से जाने वाले अनेक व्यक्ति जो वहाँ कार्य करते हैं वे कठिनतम मानी जानी वाली फ्रेंच को भी सहर्ष सीखते है और कार्य करते है...भाषा का यह कौन सा बोध है जहाँ भाषिक बोध और अस्मिता के दूसरे देश के संबंध को देख कर तो हम प्रसन्न होते हैं और प्रशंसा भी करते है पर अपने भाषिक बोध और जातीय बोध को सहर्ष छोड़कर मुड़कर भी नहीं देखना चाहते?
किसी भी देश की पहचान और उसकी अस्मिता की परिचायक प्रथमत: उसकी अपनी भाषा ही होती है. लौजैन विश्वविद्यालय में मेरे शिक्षण आरम्भ करने से पहले उनका एक ही निवेदन था कि आप कृपया अंग्रेजी मिश्रित हिंदी का प्रयोग ना करें. वे भाषा के सही और शुद्ध प्रयोग पर बल दे रहे थे. डेनियल लौजैन विश्वविद्यालय में प्रो.ब्लेन का सहायक है उर्दू विभाग में. उसकी तकलीफ यही है कि भारत में ५ वर्ष से ज्यादा रहने पर भी जब वे दिल्ली आकर उर्दू अथवा हिंदी में बात करना चाहते है तो उत्तर अंग्रेजी में ही मिलता है. लौजैन से आने वाले विद्यार्थी हिंदी के प्रशिक्षण के लिए मसूरी अथवा आगरा जाना चाहते है क्योंकि दिल्ली में उन्हें हिंदी में चर्चा करने का सुअवसर नहीं मिलता!! देश की राजधानी अपनी भाषा के प्रयोग में सक्षम नहीं अथवा इच्छुक नहीं!! विचार करें?
भाषा का सीधा संबंध भाषा व्यवस्था और भाषा व्यवहार से जुड़ा है जिसका संबंध मनुष्य के अनुभव और अनुभव प्रक्रिया से है. अपनी अनुभव प्रक्रिया से सिरे से उखड़ते जाने वाले समाज के अनुभव अपनी भाषा में बनेंगे ही नहीं तो भाषा बोध और अस्मिता बोध का आपसी संबंध क्योंकर होगा और कबतक होगा?
आर.ए. हडसन अपनी पुस्तक सोशियोलिंग्विस्टिक में एक Mental map की परिकल्पना करते हैं जिसका निर्माण प्रत्येक व्यक्ति अपने मस्तिष्क में भाषा के सन्दर्भ में करता है इस Mental Map के आधार पर वह शब्दों के उच्चारण, विचार सम्बन्धी धारणा को बनाता है।   इसके माध्यम से आने वाले विचारों से व्यक्ति की समाज के संदर्भ में समझ ज्ञात होती है। उदाहरण की चर्चा करते हुए वे कहते हैं -
     “.....Rather individuals filter their experience of new situations through their existing map and two people could both hear the same person talking, but be affected in different ways. For instance a Briton and an American could watch the same American film but learn quite different facts from it about language what for the American viewer counts as a new fact about how poor whites in the Deep South talk might count for the Briton simply as a new fact about how Americans talk....”(pg.11) (Sociolinguistics. R.A. Hudson)
भाषा अपने समस्त प्रभाव को व्यक्ति के अनुभवों से जोड़कर विस्तारित करती है. भारतीय समाज में आज स्थानीय भाषा के विलुप्तीकरण और बचपन  से ही अपने समाज से कटकर सोचने की प्रक्रिया लगातार बाधित हो रही है. सोच के स्तर पर जहाँ यूरोपीय देश प्रथमत: अपनी भाषा में सोचने और रचने के लिए अपनी मान्यता को दृढ करते जा रहे हैं जिससे पहले भाषा का संस्कार बने फिर अंतर-राष्ट्रीय समुदाय की ओर कदम बढ़ाए जाएँ वहीं भारतीय समाज अपनी पहचान को खोने के लिए तैयार है और उसके बाद भी समझने और सोचने के लिए भी तैयार नहीं है. न्गूंगी वा थ्योंगो ने अफ्रीकी समाज की पहचान को सीधे उनकी भाषा की पहचान से जोड़ा है .भाषिक पहचान की विलुप्ति समाज के विकास क्रम की भी विलुप्ति की नींव रखेगी ...इसमें संदेह नहीं !!
भाषा और समाज से जुड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा उच्चता बोध का भी है। भाषा का विकास क्रमशः एक से दूसरी की ओर होता है। इस क्रम में जिस प्रथम भाषा से अन्य भाषाओं का विकास होता है, वह भाषा और उस समाज के लोग उच्चतर मान लिए जाते हैं। यूरोपीय समाज से लेकर भारतीय समाज तक इसके अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं। यूरोपीय समाज ने ज्ञान को यूरोप से केन्द्रित करते हुए 17वीं शती में स्वयं को और अपनी भाषा को केन्द्रीय घोषित किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा जिन देशों में आधिपत्य किया गया, वहाँ की भाषा को हीन तथा अपनी भाषा को उच्च मानने का बोध वहाँ के समाज के भीतर उत्पन्न किया फलतः वे जिस-जिस देश में गए वहाँ दो प्रकार के भाषा समाज की स्थिति उत्पन्न हुई- (1) उच्च भाषा-भाषी समाज (2) हीन-भाषा-भाषी समाज। उच्च भाषा बोध से ग्रसित समाज ने हीन भाषा बोध से भरे समाज के भीतर वर्ग, लिंग, जाति गत अनेक फाँके उत्पन्न की।  इन मुद्दों को अस्मिता से जोड़कर देखना और समाज में इनेक प्रतिनिधित्व की बात करना आज अत्यंत आवश्यक है।
      भारत में यह स्थिति दो तरफा रूप से आई। एक ओर संस्कृत भाषा, जिससे पालि-प्राकृत-अपभंश-अवह्ठ-हिन्दी का रूप विकसित हुआ, बोलने वालों ने इसे देवभाषा का दर्जा दिया तथा शूद्रों व स्त्रियों को इसके दायरे से बाहर कर दिया। लिंग व जाति गत भेद ने हीनता बोध भी पैदा किया और वर्गीय अस्मिता को प्राप्त करने की ललक भी उत्पन्न हुई। हिन्दी का विकास बड़े पैमाने पर हुआ पर उससे अपना सम्बन्ध उच्चता बोध से न जोड़कर लोक-सम्पृक्ति से जोड़ा। एक ओर आधुनिक होते भारत में अपनी अस्मिता को हिन्दी से जोड़कर देखा जाना आरम्भ हुआ वहीं साथ ही साथ अंग्रेजी ने वर्गीय खाई को गहरा करना आरंभ कर दिया। हिन्दी अपनी 18 बोलियों के साथ रूपाकार ले रही थी पर अंग्रेजी के साथ इसका सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक था। हिन्दी ने उससे बहुत कुछ सीखा भी और उसे सिखाया भी। इसी द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध से समाज के विभिन्न वर्ग़ों का निर्माण हुआ। यह वर्ग कहीं जाति से जुड़े थे कहीं अस्मिता मूलक विमर्श से तो कहीं शिक्षा के आधार पर वर्ग बन रहे थे।
      ब्रिटिश सरकार की भाषा सम्बन्धी नीति भारतीय समाज में आरम्भ में तीन प्रकार के समाज निर्मित कर रही थी -
(1)   ब्रिटिश सरकार की भाषा को उन्नति का पर्याय मानने वाला बुर्जुआ वर्ग
(2)   भाषा की मुक्ति को देश की मुक्ति से जोड़ने वाला राष्ट्रवादी वर्ग
(3)   भारत की ही दो प्रमुख हिन्दी-उर्दू भाषा के बीच वैमनस्य के मध्य दबता-िपसता वर्ग।
      आगे चलकर भारत का विभाजन यह दर्शाता है कि भाषा और समाज का सम्बन्ध कितना अटूट है। यदि उसे सही दायरों में और सही तरीकों से न देखा जाए तो उसका परिणाम देशों की टूटन और निर्माण तक हो सकता है।
      भारत के सम्बन्ध में भाषा-भाषी समाज का अध्ययन सही-सही आँकड़ों के साथ भाषा व समाज के संदर्भ को दिखा सकता है जहाँ पहले उसे भाषिक वर्ग की अधिकता थी जो भाषा मुक्ति को राष्ट्र मुक्ति से जोड़कर देखता था वहीं आजादी के बाद उस बुर्जुआ वर्ग की प्रधानता हो गई जो उच्चता बोध से ग्रसित भाषा में ही गुलाम मानसिकता वाले देश की तरक्की को स्वीकार करके प्रसन्न था। इसी के मध्य मानकीकरण की प्रक्रिया को देखा जा सकता है।
आज का समाज एक ओर नव-उपनिवेशवाद के रूप में अपनी भाषा और संस्कृति को खोने और बचाने के बीच संघर्षरत है वहीं कहीं न कहीं अपने सजग और सक्षम होने की लड़ाई भी शुरू कर रहा है . इस संघर्ष में विजय देश की हो, समाज की हो, उसके अस्मिता बोध की हो और अंतर-राष्ट्रीय होने से पूर्व राष्ट्रीय होने की संभावनाओं पर हम खरे उतर सकें ..फिर अन्तर-राष्ट्रीय समुदाय के साथ भी चल सके...लोकल होकर ग्लोबल हो सकें...अस्मिता बोध और उच्चता बोध की सही समझ बन सके...इसी उम्मीद और विश्वास के साथ बात समाप्त करती हूँ....



5 comments:

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  4. भारतीय संदर्भ में तो यह वाकई उच्चता बोध और वर्ग बोध से जुड़ा है।जब तक भारतीय स्वयं ही हिन्दी को हीन समझते रहेंगे,तब तक हिन्दी सम्मानित कैसे हो पाएगी।

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  5. सही कहा बिभा. असल में हर विषय को एक रेखीय प्रणाली से समझना ज़रा कठिन है इसीलिए उसके सन्दर्भ और समाज से जोड़कर ही उसे समझा जा सकता है.

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