यह आलेख सबलोग के फरवरी २०१४ के अंक में छपा था, उसके बाद बहुत सा पानी बह चुकाहै, पर फिर भी आग्रह है कि लेख को पढ़ें क्योंकि किसी एक नाम से परिवर्तन की इबारत नहीं लिखी जा सकती और वैकल्पिक राजनीति की सदिच्छा हम सब के मन में विद्यमान है..
हम इतिहास में
हैं..
"आजकल हवाओं में है इतिहास
और इतिहास की इबारत,
रूह को
छूकर हवा धीरे से निकल जाती है..
कानों में
कुछ बांसुरी की तान सा कहकर..कि
ये पल
तुम्हारा है,
इसे जी लो
जिस तरह चाहो ,
गुजरों
इसमें से भरपूर ,
महसूस
करो, जियो इसे ..
और भर लो
इसे अपने भीतर एक एहसास की तरह
सुनो...तुम
इतिहास में हो........"
इतिहास बन रहा है और हम हर क्षण उस इतिहास की
निर्मिति के गवाह के रूप में उपस्थित हैं. इतिहास इस बात का का नहीं कि अरविन्द
केजरीवाल जीत गए और जीत कर वह दुनिया बदल देंगे. इतिहास इस बात का कि नैतिकता आज
के भूमंडलीकृत समय में भी एक मूल्य मानी जा रही है और नैतिकता पर एक मूल्य के रूप
में बात की जा सकती है.
आज एक ऐतिहासिक जीत हुई है. इस जीत को किसी
पार्टी विशेष की जीत के रूप में अनुवादित करना एक अलग मुद्दा है पर इसे सिर्फ इसी
रूप में देखा जाना कहीं न कहीं इतिहास को देखने की दृष्टि को सीमित कर देना होगा.
इसे कहीं ना कहीं जीवन के बदलते प्रतिमानों और बढ़ती चुनौतियों के बीच की छटपटाहट
के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए.
ऐसा क्या था इस पार्टी के पास जिसके बल पर
लंबे समय से जीत दर्ज करने वाले दल एक अनुभवहीन दल के समक्ष नतमस्तक हो गए? २१ वीं
सदी का दम भरती वह जनता जो वैयक्तिकता में विश्वास रखती है, आस पड़ोस के साथ बनते
संबंधों को समय की व्यर्थता के रूप में परिभाषित करती है—ऐसी जनता जो व्यक्ति को
उसकी कमा सकने की क्षमता से ही परिभाषित करती है—उस जनता के समक्ष नैतिकता का वह
कौन सा दबाव था कि वह इस नयी बनी एक ऐसी पार्टी को वोट देने चली गई--- जिसके संबंध
में अभी भविष्य ही नहीं स्वयं वर्तमान भी अनिश्चितता का दावा कर रहा था.... ?
वर्ग, जाति और लिंग के दायरों में निर्णय
लेने वाले हम आखिर किस मुद्दे पर अपनी बनी बनाई प्रतिबद्धता को छोड़ कर एक ऐसे दल
के समर्थन में आ गए –जिसने जाति और वर्ग को मुद्दा ही नहीं माना? क्या इसका अर्थ
यह निकाला जाए कि मध्यवर्ग की बनी बनाई परिभाषाओं में से निकलने की यह कोई ऐसी
छटपटाहट थी जिसके निकलने का अवसर पाते ही मध्यवर्ग अपनी नई परिभाषा बनाने चल पड़ा?
अथवा यह माना जाए कि जाति की किले बंदी तोड़
कर हम उससे आगे निकलकर मुद्दों को प्राथमिकता देने लगे हैं? असल में किसी निष्कर्ष
पर पहुँचना अभी संभव नहीं और ऐसा करना कुछ जल्दबाजी ही होगी. अभी तो जुम्मा-जुम्मा
जनमी इस पार्टी के भविष्य के कयास भी निश्चित तौर पर नहीं लगाए जा सकते पर यहाँ
चर्चा के बिंदु कुछ इस तरह देखे जा सकते हैं..
·
जरूरी मुद्दों को गैर जरूरी मान लिए जाने के बाद पुन:
जरूरी बनाया जाना
·
किसी दल विशेष
के वोट बैंक माने जाने की परम्परागत अवधारणा का खंडन
·
नैतिकता पर चर्चा पुन: आरम्भ
·
प्रतिबद्धता के दायरे में सामान्य मान ली जाने वाली
समस्याएँ एक बार फिर चर्चा के केन्द्र में
दिल्ली में कुछ दिन पहले
जो घटा –उसकी फिज़ा में बदलाव की आहटें थी. ठीक उस तरह की बैचैनी थी—जैसे किसी तरह
की खोई चीज मिलने के समय होती है अथवा आजादी के क्षणों में जनता जिस तरह बेचैन
होकर चल पड़ी थी--- अपने ही अनुशासन में बद्ध, स्व नियंत्रित और स्व-राज
की परिकल्पना से शासित. यह कोई प्रायोजित जनता नहीं थी, न ही किसी मेले
ठेले को देखने को ललचाई जनता- बल्कि हर एक के भीतर एक इतिहास हिलोरे ले रहा था- वर्तमान
का इतिहास—जिसे वो बनाना चाहते थे—हमेशा से ही- वो बन जाए यह सबकी इच्छा
थी—बन पाएगा, इसकी आशंका भी थी.
ई.एच.कार इतिहास की चर्चा करते
हुए कहते हैं---------इतिहास लेखन आवश्यक रूप से वर्तमान की आँखों से और
वर्तमान की समस्याओं के प्रकाश में अतीत को देखता है और इतिहास का मुख्य कार्य
विवरण देना नहीं बल्कि मूल्यांकन करना होता है"( पेज-१३,इतिहास क्या
है)..........हम केवल वर्तमान की आँखों से से ही अतीत को देख, समझ सकते हैं. इतिहासकार अपने युग के साथ मानवीय
अस्तित्व की शर्तों पर जुड़ा होता है......इतिहासकार का काम न तो अतीत को प्यार
करना होता है न खुद को अतीत से मुक्त करना बल्कि वर्तमान को समझने के लिए उसे अतीत
के अध्ययन में दक्षता प्राप्त करनी चाहिए और अपनी समझ का वर्तमान की कुंजी के रूप
में इस्तेमाल करना चाहिए...(पेज १६-`१७)
आज वर्तमान एक अतीत की
प्रेरणा स्वरूप निर्मित हो रहा है—आम आदमी पार्टी के उदय को इस रूप में भी पढ़ना
चाहिए कि इसके पीछे एक ओर सामान्य व्यक्ति की भावनाओं की समझ तो है पर उसके साथ आजादी
के इस ६५ वर्षों का मोहभंग भी है. मोहभंग उन सभी दलों से जो जनता को केन्द्र
में रखने का दावा करते करते उसी जनता को भूल गए थे—एक प्रचलित मुहावरे के अनुसार
राजनीति को एक ऐसा दलदल मान लिया गया है जिसमें उतरने का अर्थ उस गंदगी को आत्मसात
कर लेना भर हो गया है—अगर आज जनता के मन में यह विश्वास जगा है कि दलदल को साफ़
करने के लिए उसमें उतरना ही विकल्प है तो इसका श्रेय तो एक नए दल को देना ही होगा
पर इस श्रेय की अपनी जिम्मेदारी है जिसे किसी सीमा तक ही सही पर निभाना तो होगा—जोश
से भरे भाषणों को सुनते हुए जश्न-ए-आजादी की याद आ जाती है पर प्रश्न यह भी है कि
आजादी के जो सपने दिखाए गए वह सपने तो ६५ साल में पूरी तरह बुझ गए तो इन जोश से
भरे भाषणों का अंत भी कुछ वैसा ही तो नहीं होगा?
असल में उम्मीद एक
जिम्मेदारी के साथ त्रासदी भी है –जब हम उम्मीद करना छोड़ देते है तब जन-प्रतिनिधि भी
आँखें मूँद सकते हैं—पर जब खुली आँखों से सपने देखने लगती है जनता, तब समस्या हो
जाती है—ऐसा न हो कि सपनों को बार-बार त्रासदी का सामना करना पड़े क्योंकि सपने
देखना भी एक ताकत है—पाश की एक कविता है---
सबसे खतरनाक
होता है, हमारे सपनों का मर जाना
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं
होती,
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती,
गद्दारी, लोभ का मिलना सबसे
खतरनाक नहीं होता,
सोते हुये से पकडा जाना बुरा तो है,
सहमी सी चुप्पी में जकड जाना
बुरा तो है,
पर सबसे खतरनाक नहीं होता,
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा
शान्ति से भर जाना,
न होना तडप का सब कुछ सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर और काम से
लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है, हमारे
सपनों का मर जाना ।
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं
होती,
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती,
गद्दारी, लोभ का मिलना सबसे
खतरनाक नहीं होता,
सोते हुये से पकडा जाना बुरा तो है,
सहमी सी चुप्पी में जकड जाना
बुरा तो है,
पर सबसे खतरनाक नहीं होता,
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा
शान्ति से भर जाना,
न होना तडप का सब कुछ सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर और काम से
लौट कर घर आना,
सबसे खतरनाक होता है, हमारे
सपनों का मर जाना ।
यह आकस्मिक तो नहीं कि पाश की कविताएँ सपनों की कविताएँ है और
पाश की अपनी उम्र भी लंबी नहीं हो पांई. राजनीति
पर फिर से विश्वास करने की जो प्रवृति इस नए दल के उदय के साथ विकसित हुई वह चलती
रहे और अन्य दल भी इस इतिहास की निर्मिति का हिस्सा बन सके, हम तो यह उम्मीद ही कर
सकते है..इस उम्मीद को रंग मिले और यह परवान चढे, यही इच्छा कर सकते है..
और कुछ न सही कम से कम
नैतिकता पर चर्चा तो शुरू हुई , सादगी और राजनीति के गठजोड़ पर लोगों का विश्वास
हुआ, धन के वैभव के पालने से उतर कर आम लोगों की चर्चा करने की लिए दल विवश हुए, भाषण
देने के कुछ वो क्षण भी इसमें जोड़ लीजिए जब लोग टकटकी लगाए लगातार अरविन्द
केजरीवाल का भाषण सुनते रहे.., झाडू एक प्रतीक बन गया—राजनीति की गंदगी की सफाई
का.
अरविन्द केजरीवाल को पहली बार तब सुना जब वह २ वर्ष पहले हमारे
कॉलेज के वार्षिक पब्लिक लेक्चर में आए थे---उस वक्त उन्होंने सूचना के अधिकार की
लड़ाई में सभी को हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया था—उस वक्त से लेकर एक माह पूर्व
तक भी किसी ने राजनीति में इस व्यक्ति के इतने बड़े हस्तक्षेप के कयास नहीं लगाए थे—पर
आज जब केजरीवाल स्वराज और भ्रष्टाचार मुक्त भारत को अपनी जिद बताते है—तो आशा और
उम्मीद अधिक हो जाती है—इस बात की नहीं कि वही एकमात्र व्यक्ति होंगे जो परिवर्तन
लाएगें बल्कि इस बात की कि अन्य दल भी अब गैर जरूरी मान लिए जाने वाले जरूरी
मुद्दों पर अपनी सोच बदलने के लिए विवश होंगे---लोकतंत्र का मूर्खों का मूर्खों के
लिए शासन कहकर उपहास उड़ाने की प्रवृत्ति खत्म होगी- और देश भर के दल जनता के हक की
बात करना शुरू करेंगे—मुद्दा चाहे महंगाई का हो या हर साल घोषित किए जाने वाले बजट
का--- कुछ क्षण रूककर ये जन प्रतिनिधि सोंचेंगे अवश्य कि आखिर जिसके हक की बात
करते हुए हम ६५ साल की यात्रा कर चुके है—उसके हक बड़े-बड़े बंगले अदा करेंगे या बीच
में उतर कर उसके समीप जाना भी कोई विकल्प हो सकता है.- आखिर हमारी लड़ाई हमेशा
सकारात्मक परिवर्तन की तो थी—हो सकता है यह थोड़ा सा झटका आने वाले समय में
रणनीतिकारों को और कुछ नहीं तो विचार के लिए ही बाध्य करे. विश्वास इस पर भी जगा
कि परिवर्तन हो सकता है—कितना होगा यह तो भविष्य ही तय करेगा..
भाषा के बेहतर प्रयोग
का प्रश्न एक ऐसा प्रश्न है जिस पर लंबे समय से हमने चर्चा करनी छोड़ दी है. भाषा
का प्रयोग हमारी अस्मिता से लेकर हमारी सोच के दायरों को भी सीमित अथवा विस्तृत
करता है, इस पर अब हमने सोचना, बात करना छोड़ दिया है.. आक्षेपों और दुराग्रह से
पूर्ण भाषा के समानांतर कुछ अच्छे वक्तव्यों को सुनना सुखद आश्चर्य था--- ऐसा सुख
बना रहे—कामना कीजिए और कहिए—आमीन
समाप्त
No comments:
Post a Comment